राहत इंदौरी Ghazals – हर इक चेहरे को जख्मों का आईना ना कहो

मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था

अपने ही फैलाव के नशे में खोया था दरख्त
और हर मौसम टहनी पर फलों का बार था

देखते ही देखते शहरों की रौनक बन गया
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार था

सबके दु:ख-सुख उसके चेहरे पे लिखे पाए गए
आदमी क्या था हमारे शहर का अखबार था

अब मोहल्ले भर के दरवाजों पे दस्तक है नसीब
इक जमाना था के जब मैं भी बहुत खुद्दार था

कागज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई
हमने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था।

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इंत़ेजामात नए सिरे से संभाले जाएँ.. – राहत इंदौरी

इंत़ेजामात नए सिरे से संभाले जाएँ
जितने कमज़र्फ हैं महफिल से निकाले जाएँ

मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन
जब मजा है तेरे आँगन में उजाले जाएँ

ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन
पहले मयखाने के हालात संभाले जाएँ

खाली वक्तों में कहीं बैठ के रो लें यारों
फुरसतें हैं तो समंदर ही खँगाले जाएँ

खाक में ना मिला जब्त की तौहीन ना कर
ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जाएँ

हम भी प्यासे हैं ये अहसास तो हो साक़ी को
खाली शीशे ही हवाओं में उछाले जाएँ

आओ शहर में नए दोस्त बनाएँ ‘राहत’
आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जाएँ।

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हर इक चेहरे को जख्मों का आईना ना कहो.. – राहत इंदौरी

हर इक चेहरे को जख़्मों का आईना ना कहो
ये जिंदगी तो है रहमत इसे सजा न कहो

जाने कौन सी मजबूरियों का कैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफा न कहो

तमाम शहर ने नेज़ो पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफाक़ था इसे हादसा न कहो

ये और बात है के दुश्मन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

हमारे ऐब हमें उँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

मैं वाक़ियात की ज़ंजीर का नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो

ये शहर वो है जहाँ रक्कास भी है ‘राहत’
हर इक तराशे हुए बुत को खुदा न कहो।

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चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया.. – राहत इंदौरी

चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया
आईना सारे शहर की बीनाई ले गया

डूबे हुए जहाज़ पे क्या तबसरा करें
ये हादसा तो सोच की गहराई ले गया

हालाँकि बेज़ुबान था लेकिन अजीब था
जो शख़्स मुझसे छीन के गोआई ले गया

इस वक्त तो मैं घर से निकलने न पाऊँगा
बस इक कमीज़ थी जो मेरा भाई ले गया

झूठे कसीदे लिखे गए उसकी शान में
जो मोतियों से छीन के सच्चाई ले गया

यादों की एक भीड़ मेरे साथ छोड़कर
क्या जाने वो कहाँ मेरी तन्हाई ले गया

अब तो खुद अपनी साँसें लगती हैं बोझ सी
उम्रों का देव सारी तवनाई ले गया।

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शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे… – राहत इंदौरी

शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे
कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे

पेड़ सब नंगे फकीरों की तरह सहमे हैं
किस से उम्मीद ये की जाए कि साया दे दे

वक्त की संग-ज़नी नोच गई सारे नक़्श
अब वो आईना कहाँ जो मेरा चेहरा दे दे

दुश्मनों की भी कोई बात तो सच हो जाए
आ मेरे दोस्त किसी दिन मुझे धोखा दे दे

मैं बहुत जल्द ही घर लौट के आ जाऊँगा
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे

डूब जाना ही मुकद्दर है तो बेहतर वरना
तूने पतवार जो छीनी है तो तिनका दे दे

जिसने कतरों का भी मोहताज किया मुझको
वो अगर जोश में आ जाए तो दरिया दे दे

तुमको राहत की तबीयत का नहीं अंदाज़ा
वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे।

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