ग़ज़ल

कुछ समझ नहीं आता

मज़ारों पर उनकी जलाए जाते हैं चिराग,
जीते जी जिन्हे रही उजाले की दरकार,
अजब रिवायत है जमाने की,
कुछ समझ नहीं आता ।

जिंदगी भर जिस अभागे का दिया न किसी ने साथ,
दफनाने को अपने बेगाने भी हो लिए साथ,
हैरत अंदाज़ है जमाने का,
कुछ समझ नहीं आता ।

बुढ़ापे में माँ-बाप की सेवा है एक संस्कार,
उनका भी है यह कानूनी अधिकार,
फिर भी जाने क्यूं है वृद्धाश्रमों में उनकी भरमार,
कुछ समझ नहीं आता ।

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